गुर्जर आरक्षण आंदोलन पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से कई बार हुंकार भरता रहा है। गुर्जर एक बार फिर रेलवे ट्रैक पर आकर आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। मौजूदा राज्य सरकार इसे केन्द्र का मुद्दा बताकर गुर्जरों को वार्ता का टॉनिक दे रही है। तो गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला भी इसके साइड इफेक्ट सरकार को स्पष्ट तौर पर बता चुके हैं। आखिर, बीते 13वर्षों में भी राजस्थान में गुर्जर आरक्षण मामले को अमलीज़ामा क्यों नहीं पहनाया गया है। पढ़िए आंदोलन की पूरी इनसाइड स्टोरी…
आरक्षण के लिए एक बात हमेशा कही जाती है। आरक्षण का वादा, न निभाना आसान है न तोड़ना। ये बिल्कुल सही भी है। क्योंकि, सत्ता में चाहे कोई भी हों। लेकिन ये वादे ऐसे होते हैं, जिन्हें कोई भी दल या पार्टी पूरा करने से मना नहीं करती है। चूंकि, वादों के इन पथरीलें रास्तों से ही सत्ता की राह आसान जो होती है।
राजस्थान में न तो गुर्जर आरक्षण का मुद्दा नया है, न ही इनका रेलवे ट्रैक और हाइवे पर जमा होना। साल 2006 में गुर्जरों ने करौली के हिण्डौन में रेलवे ट्रैक जाम कर दिया था। चूंकि ये शुरुआत थी तो किसी तरह की जनहानि इसमें नहीं हुई। इसके बाद 21मई 2007 को गुर्जर एक बार फिर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन को उतरें। इस बार उन्होंने दौसा जिले के जयपुर-आगरा हाइवे को जाम कर दिया। इस हिंसा में पीपलखेड़ा पाटोली में 28लोग मारे गए। इस हिंसा के बाद ये आरक्षण आंदोलन भारत के पटल पर छा गया।
2008 में एक बार फिर इस आंदोलन की चिंगारी उठी, और इस बार 30लोग इस हिंसक आंदोलन की भेट चढ़ गए। 2010 में जाकर गुर्जरों की आरक्षण की मांग पूरी होती दिखी। जब सरकार ने इन्हें पांच प्रतिशत आरक्षण दिया। लेकिन, यहां ये पचास प्रतिशत के जादुई आंकड़े से बाहर 54प्रतिशत पर पहुंच गया। बाद में एक प्रतिशत आरक्षण गुर्जर समुदाय सहित अन्य चार जातियों को दिया और शेष चार प्रतिशत पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। 1प्रतिशत आरक्षण से संतोष और सरकार से तमाम वार्ताओं के बाद 2015 में एक बार फिर आरक्षण का जिन्न बाहर निकला। इस बार भी ये आंकड़ा अपने कायदे से बाहर होने के कारण हाईकोर्ट ने फिर रोक लगा दी।
उस मुकाम तक क्यों नहीं पहुंचा जिसे मंजिल कहते हैं!
प्रदेश में गुर्जर आरक्षण ही नहीं बल्कि, सभी जातियों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा को पचास प्रतिशत तय किया है। कानूनी प्रावधान में आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का विकल्प नहीं है, या यूं कहें कि कानून इस बढ़ाने की इजाज़त नहीं देता है। हालांकि, राजनीतिक पार्टियों ने चुनावी फायदे के लिए आरक्षण मुद्दें को खूब भुनाने का काम किया है। पर सच तो ये हैं कि सियासी रूप ले चुके आरक्षण मामले का कानूनी धरातल की कसौटी पर खरा उतरना नामुमकिन है। ऐसे में गुर्जर आरक्षण आंदोलन उस हसीन सपने की तरह है, जिसका पिछले छह: बार की तरह एक बार फिर टूटना तय है।