किसी भी खिलाड़ी की महानता को नापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी कहानियां जुड़ी हैं। इस हिसाब से मेजर ध्यान चंद का कोई मुक़ाबला नहीं है।
हॉलैंड में तो लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगी है। जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है।
हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें बढ़ा चढ़ा कर कही गई हों लेकिन अपने ज़माने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपना लोहा मनवाया होगा इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं, मानों कि वो कोई देवता हों।
गोलकीपरों के लिए चुनौती थे मेजर ध्यान चंद
1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन के एक अंक में लिखा था…
मेजर ध्यान चंद के पास कभी भी तेज़ गति थी ही नहीं बल्कि वो तो धीमा ही दौड़ते थे। लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की क्षमता गज़ब की थी। बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ़्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फ़ायदा मिला। डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के पास भी कोई मौका नहीं रहता था।
दो बार के ओलंपिक चैंपियन केशव दत्त ने हमें बताया कि…
बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाईयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे। लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी. वो उस ढंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंदी मूव कर रहे हैं।
1986 के विश्व कप फुटबॉल का फ़ाइनल याद कीजिये। माराडोना ने बिल्कुल ब्लाइंड एंगिल से बिना आगे देख पाए तीस गज़ लंबा पास दिया था जिस पर बुरुचागा ने विजयी गोल दागा था।
सम्पूर्ण खिलाड़ी थे मेजर ध्यानचंद
किसी खिलाड़ी की संपूर्णता का अंदाज़ा इसी बात से होता है कि वो आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मैदान की ज्योमेट्री पर महारत हासिल कर पाए।
केशव दत्त कहते हैं…
जब हर कोई सोचता था कि मेजर ध्यान चंद शॉट लेने जा रहे हैं वो गेंद को पास कर देते थे। इसलिए नहीं कि वो स्वार्थी नहीं थे (जबकि वो थे भी नहीं) बल्कि इसलिए कि विरोधी उनके इस मूव पर हतप्रभ रह जाएं। जब वो इस तरह का पास आपको देते थे तो ज़ाहिर है आप उसे हर हाल में गोल में डालना चाहते थे।
54 की उम्र में भी बेमिसाल थे ध्यानचंद
1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं।
जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था…
अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था।
1968 में भारतीय ओलंपिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख़्श सिंह ने मुझे बताया कि 1959 में भी जब मेजर ध्यान चंद 54 साल के हो चले थे भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था।
1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई।
जब जर्मनी को मेजर ध्यान चंद ने दौड़ा दौड़ा कर हराया
ध्यान चंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं…
मैं जब तक जीवित रहूँगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए।
लेकिन दारा सेमी फ़ाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुँच पाए। जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था। मगर उस दिन बारिश हो गई। इसलिए मैच अगले दिन यानि 15 अगस्त को खेला गया। मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झंडा निकाला। उसे सभी खिलाड़ियों ने सेल्यूट किया (उस समय तक भारत का अपना कोई झंडा नहीं था। वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलंपिक खेलों में भाग ले रहा था।)
बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40,000 दर्शक फ़ाइनल देखने के लिए मौजूद थे। देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे।
ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी। हाफ़ टाइम तक भारत सिर्फ़ एक गोल से आगे था।
इसके बाद जर्मनी की टीम सिर्फ़ दौड़ती ही रही
इसके बाद मेजर ध्यान चंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोज़े उतारे और नंगे पांव खेलने लगे। इसके बाद तो गोलों की झड़ी लग गई।
दारा ने बाद में लिखा…
छह गोल खाने के बाद जर्मन रफ़ हॉकी खेलने लगे। उनके गोलकीपर की हॉकी ध्यान चंद के मुँह पर इतनी ज़ोर से लगी कि उनका दांत टूट गया।
उपचार के बाद मैदान में वापस आने के बाद मेजर ध्यान चंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए। सिर्फ़ जर्मन खिलाड़ियों को ये दिखाया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है।
इसके बाद हम बार बार गेंद को जर्मन डी में ले कर जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते। जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है।
भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया और इसमें तीन गोल ध्यान चंद ने किए।
एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा…
बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा। भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों। उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया।
क्या ड्रिबलिंग करते थे मेजर ध्यान चंद?
मेजर ध्यान चंद के पुत्र और 1972 के म्यूनिख ओलंपिक खेलो में कांस्य पदक विजेता अशोक कुमार बताते हैं कि एक बार उनकी टीम म्यूनिख में अभ्यास कर रही थी तभी उन्होंने देखा कि एक बुज़ुर्ग से शख़्स एक व्हील चेयर पर बैठे चले आ रहे हैं। उन्होंने पूछा कि इस टीम में अशोक कुमार कौन हैं?
जब मुझे उनके पास ले जाया गया तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया और भावपूर्ण ढ़ंग से अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में बताने लगे…
तुम्हारे पिता इतने महान खिलाड़ी थे। उनके हाथ में 1936 के ख़बरों की पीली हो चुकी कतरनें थी जिसमें मेरे पिता के खेल का गुणगान किया गया था।
ओलंपियन नंदी सिंह ने एक बार बताया था कि लोगों में ये बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है कि मेजर ध्यान चंद बहुत ड्रिबलिंग किया करते थे।
वो बिल्कुल भी ड्रिबलिंग नहीं करते थे। गेंद को वो अपने पास रखते ही नहीं थे। गेंद आते ही वो उसे अपने साथी खिलाड़ी को पास कर देते थे।
जब के एल सहगल ने मेजर को सुनाए 14 गाने
भारत लौटने के बाद मेजर ध्यान चंद के साथ एक मज़ेदार घटना हुई। फ़िल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ध्यान चंद के फ़ैन थे। एक बार मुंबई में हो रहे एक मैच में वो अपने साथ नामी गायक कुंदन लाल सहगल को ले आए।
हाफ़ टाइम तक कोई गोल नहीं हो पाया। सहगल ने कहा कि हमने दोनों भाइयों का बहुत नाम सुना है। मुझे ताज्जुब है कि आप में से कोई आधे समय तक एक गोल भी नहीं कर पाया।
रूप सिंह ने तब सहगल से पूछा कि क्या हम जितने गोल मारे उतने गाने हमें आप सुनाएंगे?
सहगल राज़ी हो गए। दूसरे हाफ़ में दोनों भाइयों ने मिल कर 12 गोल दागे। लेकिन फ़ाइनल विसिल बजने से पहले सहगल स्टेडियम छोड़ कर जा चुके थे।
अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो आने के लिए ध्यान चंद के पास अपनी कार भेजी। लेकिन जब ध्यान चंद वहाँ पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड उखड़ चुका है। मेजर ध्यान चंद बहुत निराश हुए कि सहगल ने नाहक ही उनका समय ख़राब किया।
लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुँचे जहाँ उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए 14 गाने गाए। न सिर्फ़ गाने गाए बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक एक घड़ी भी भेंट की।