आज सारी कायनात के मुसलमान मिलकर ईद-उल-अज़हा का त्यौहार मना रहे हैं। लेकिन असल में क़ुर्बानी कौन देता है कभी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि साल के बारह महीने काटने वाले जानवरों की क़ुर्बानी देकर तो सिर्फ़ ईद नहीं मनाई जा सकती। दरअसल इब्राहिम से जो असल कुर्बानी मांगी गई थी, वह थी उनकी खुद की। अर्थात ये कि आदम जात की ख़िदमत में खुद को भूल जाओ, अपने सुख-आराम को भूलकर खुद को मानवता/इंसानियत की सेवा में पूरी तरह से लगा दो। कुछ लोग हैं जो वाकई में ईद-उल-अज़हा के सही मायने समझते हैं। लेकिन आज के वक़्त में ईद सिर्फ़ ज़ुबान का स्वाद भर रह गयी है। बिरयानी बुख़ारी, नल्ली निहारी, कोरमा, शोरमा, क़बाब वग़ैरह-वग़ैरह, साल में कभी भी बना सकते हैं, कभी भी खा सकते हैं। आज के पाक़ दिन पर क़ुर्बानी देनी ही है तो वक़्त के साथ अपने अंदर पनप चुकी बुराइयों की दो। किसी बेज़ुबान की क्यों।
ईद-उल-अज़हा का त्यौहार हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। ईद-उल-अज़हा के दो संदेश है। पहला परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखते हुए खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए। दूसरा…, ईद-उल-अज़हा यह याद दिलाता है, कि कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया अध्याय लिखा गया। जब हज़रत इब्राहिम अपने पुत्र हज़रत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा कि राह में कुर्बान करने जा रहे थे, तो अल्लाह ने उसके पुत्र को जीवनदान दे दिया जिसकी याद भी में यह पर्व मनाया जाता है। लेकिन इसका बकरों से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि अरब देशों में क़ुर्बानी तब से प्रचलन में थी, जब इस्लाम अरब देशों में वजूद में भी नहीं था। इस्लाम आने से पहले अरब के लोग हज यात्रा पूरी होने पर देवी की मूर्ति के आगे कोई भी जानवर की क़ुर्बानी देते थे। तब हज़रत इब्राहिम और उनके पुत्र हज़रत इस्माइल का क़ुर्बानी से कोई इत्तेफ़ाक़ नही था। हज का ये दस्तूर सिर्फ़ ईष्ट को प्रसन्न करने के लिए निभाया जाता था, ग़ौरतलब है कि हज की परंपरा भी इस्लाम से बहुत पहले से ही चली आ रही है, जिसे बाद में इस्लाम में शामिल कर लिया गया।
कहा जाता है की अरबों को कुर्बानी की परंपरा यहूदियों से विरसे में मिली है, क़ुर्बानी का रिवाज़ यहूदियों में सदियों से था। उनके लिए क़ुर्बानी के मायने त्याग से था। जिसके तहत, यहूदी अपने कमाई का पहला हिस्सा, नयी फसल का पहला भाग, पालतू जानवर का पहला दूध, अपने झुण्ड के पहले जानवर को ईश्वर के लिए ‘कुर्बान’ करते थे। जिससे रब की नेमत हमेशा उन पर बनी रहे। यहूदियों द्वारा जानवरों की बलि एक ‘वेदी’ पर दी जाती थी जिसका थोड़ा सा मांस वेदी की अग्नि में जला दिया जाता था।
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मगर आज इस बात को कोई नहीं जनता। सब लोग किसी जानवर को हलाल कर, एक दूसरे से ईर्ष्या और द्वेष की आग़ में पकाकर खाते हैं। और उस परवरदिगार के क़दमों तक पहुँचती है तो सिर्फ़ नफ़रत व बुराई। सोच को बदलने की जरुरत है। किसी पशु की क़ुर्बानी दो या मत दो मग़र अपने अंदर पनप चुके उस पशु की क़ुर्बानी ज़रूर दो। जो वक़्त की नज़ाकत देखकर तमाम मुल्क़ और कायनात में चैन-ओ-अमन को तबाह करने की कोशिश करता रहता है। तभी ईद-उल-अज़हा सही मायनों में ईद कहलाएगी। और अल्लाह की ख़िदमत भक्ति कहलाएगी। क्योंकि कुरान की आयत 22:37 में भी लिखा है, ”उनका मांस अल्लाह तक नहीं पहुंचेगा, और न ही उनका खून, मगर जो उसके पास पहुंचेगा वो है तुम्हारी भक्ति।”
तो फिर क्यों ना आज इस को एक नए जश्न में रूप में मनाया जाये, आज अगर क़ुर्बानी देनी ही है तो अपने अंदर घुल चुकी नफ़रत, जलन, ग़लतफ़हमी, बदजुबानी की दी जाये। क्यों ना इस बार बेज़ुबानों को ख़ता–बख़्श किया जाये। यक़ीनन ये सबसे बड़ी और पाक़ क़ुरबानी होंगी, जब आज क़ुर्बानी बकरे नहीं हम देंगे। क्योंकि बकरे के कटने से तो क़ुर्बानी बकरे की ही कहलाएगी।