नए हिंदुस्तान के युग पुरुष नरेंद्र मोदी। एक ऐसे लीडर हैं जो कड़वी बातें करते हैं। क्योंकि वो सच बोलते हैं। और सच हमेशा कड़वा ही होता है। लेकिन फ़िर भी ना तो जनता को और ना ही किसी नेता को बुरा लगता है। लेकिन दूसरी तरफ़ वो दुःख में आंसू बहाने और बड़ों का सम्मान करने से भी नहीं हिचकिचाते। छोटों और बराबर वालों को प्यार भी करते हैं, तो ग़लती करने पर डांटते भी हैं। इसीलिए भारत के तेजस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी के स्वैग में गहरे सन्देश छिपे होते हैं। जो राहुल गांधी जैसी मानसिकता रखने वाले लोगों की समझ से बहुत दूर हैं। प्रधानमंत्री की लोकसभा में शानदार जीत के बाद। पहली संसदीय दल की बैठक में उनके द्वारा किये गए सम्बोधन के वो छः सबक़। जिनसे ना केवल किसी राजनेता को बल्कि प्रत्येक देशवासी को सीख लेनी चाहिए।
पहला सबक़: चुनाव, चुनावों की तरह ही हों
अगर हिंदुस्तानी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चुनाव जैसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता, तो कई “राहुल गांधी” संकट में पड़ जाते। फिर कला, एक्टिविज्म, पत्रकारिता और शिक्षा जैसे क्षेत्रों के कई “कुलीन” अपनी कुर्सी ऐसे लोगो को खो बैठते जो अधिक मज़बूत, प्रशंसनीय और प्रासंगिक हो।
दूसरा सबक़: सेक्युलरिज़्म का सही मतलब
जब सम्पूर्ण भारत में “सेक्युलरिज़्म” को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा था। तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका कड़ा विरोध करते हुए ऐसा मखौल उड़ाया कि “सेक्युलरिज़्म” का राग अलापने वाले चारों खाने चित्त हो गए। भले ही देर से ही सही लेकिन सन 1976 में भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को एक विशेष स्थान दिया। लेकिन फ़िर वोट बैंक और धर्म की राजनीति करने वालों ने इसके मायने ही बदल डाले। धर्मनिरपेक्षता का मतलब होता है किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करना। पश्चात संस्कृति भी यही कहती है। सेक्युलरिज़्म के अनुशार किसी देश के कानून में धर्म के आधार पर हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत में इसका बिल्कुल उलट है। यहां धर्म को ही अपने आप में एक कानून मान लिया जाता है।
हिंदुस्तानी पत्रकारिता में भी अधिकांशतः सेक्युलरिज़्म को भुनाया गया है। कभी मंदिर, कभी मस्जिद और कभी चर्च का फोटो छाप लोगों की भावनाओं के साथ खेला गया। जबकि सेक्युलरिज़्म के अनुसार ये जगहें ऐसी हैं। जिनकी शांति दूतों के रूप प्रदर्शनी लगायी जाती रही है। जो सिर्फ़ और सिर्फ़ सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण है।
तीसरा सबक़: हिंदुस्तान हर हिंदुस्तानी का
प्रधानमंत्री ने कहा कि वे एक ऐसा राष्ट्र बनायेंगे जहां केवल प्रज्ञा ठाकुर ही चुनाव नहीं जीत सकती। अर्थात प्रज्ञा की जगह कोई फ़ातिमा भी चुनाव जीत सकती है। मोदी जी इसका अभिप्राय “समावेशी भारत” से देते हैं। ये केवल एक संभावना नहीं है। मोदी जी उस तक पहुँच भी रहे है। जिसका अपना अलग मोल है।
2019 के आम चुनाव उन भारतीय मुसलमानों के लिए बड़ा सबक़ है। जिनके पक्ष में साल 2015 में “200 लेखकों, 200 कलाकारों” ने असहिष्णुता का हवाला देते हुए अवॉर्ड वापसी की परंपरा शुरू की। वे लोग ऐसे मुसलमानों के लिए सिर्फ़ अवॉर्ड वापसी से अधिक और कुछ नहीं कर सकते।
लेकिन, नए भारत में मुसलमानों को निश्चित रूप से उत्कृष्टता प्राप्त करने के अवसर मिलेंगे। जिस देश में मुसलमानों को फिल्म सुपरस्टार के रूप में सिर आंखों पर बिठाया जाता है। एक और मुस्लिम को भारतीय क्रिकेटर की कप्तानी करने का मौका दिया जाता है। एक समय ऐसा भी था जब आज़ादी का मतलब गलती करने के बाद बच कर निकल जाना या उसके लिए मामूली सज़ा पाना समझ लिया गया था। जबकि पिछले कुछ समय से मुसलमानों ने संयम बरतना सीख लिया है, जो किसी समय में गुस्सा दिखाना अपना अधिकार समझते थे।
चौथा सबक़: नोटबंदी कोई आपदा नहीं
कुछ लोग ढाई सालों से चीख़ चिल्ला रहे थे, कि नोटबंदी ने आम आदमी का पैसा छीन लिया है। भारत में बेरोजगारी की दर पिछले 45 सालों में सबसे अधिक हो गयी है। जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ़ मोदी है। लेकिन फ़िर भी मोदी जी जीत गए!
अब कुछ ऐसे लोग जिन्हें महाज्ञानी कहें या अज्ञानी, कह रहे हैं कि मोदी तो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को मुद्दा बनाकर जीते हैं। जिनमें ऐसे पत्रकार और ज्ञानी भी हैं जिनको ये दिखाई नहीं दिया कि एक आम आदमी की श्रम व रोज़गार सम्बन्धी आशाएं तथा समृद्धि एवं केंद्र सरकार की सभी जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन लोगों तक पहुंचा जिन्हें बाकई में उनकी ज़रूरत थी। लेकिन उनके लिए इस बात को पचाना मुश्किल हो रहा है, कि इस बार देश के 40% मतदाताओं ने मोदी जी को पहली पसंद के रूप में चुना है। जो 2014 से भी ज़्यादा है।
मोदी जी द्वारा नोटबंदी की घोषणा राजनितिक रूप से ठोस क़दम साबित हुयी। उस दौरान आम हिंदुस्तानी ने उन पूंजीपतियों की तिलमिलाहट भी देखी जिन्हें नोटबंदी ने लाइन में खड़े होने पर मज़बूर कर दिया। साथ ही उसके बाद मोदी जी ने एक दर्जन से अधिक मुख्य चुनावों में पार्टी की जीत दिलायी। और अब लोकसभा चुनाव परिणाम से भी स्पष्ट होता है कि वो केवल बुद्धिजीवियों के दिमाग़ की उपज थी कि नोटबंदी एक आपदा थी।
पाँच सबक़: जेएनयू में क्या सिखाया जाता है
अब कन्हैया कुमार के भी समझ में आ गया होगा कि ग़रीब और नेहरूवादियों में एक रहस्यमय रिश्ता है। ग़रीब वही करते हैं जो ज्ञानी लोग उन्हें सिखाते हैं। मज़े की बात तो यह है की कन्हैया उन्हीं आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देना चाहते हैं, और उन्हीं लोगों से समर्थन पाते हैं। जिनकी वजह से ही उनकी माँ गरीब थी। अब उन्हें ये भी अहसास होना चाहिए की छात्र राजनीति और उनके नाम पर प्रसिद्धि पाने की स्कीम से वो राजनीति नहीं कर सकते। तो अब कन्हैया कुमार को अपने मध्यमवर्गीय उस्तादों के रोज़गार से ख़ुद को मुक्त करना चाहिए, जिन्हें वामपंथियों को काम पर रखने की आदत है।
छह सबक़: कभी बे सिर पैर की सलाह नहीं
जिन लोगों ने ये सलाह दी थी कि “प्रियंका को अब राजनीति में प्रवेश करना चाहिए”, उनकी कोई बड़ी अंतर्दृष्टि नहीं थी। इसके अलावा और कौन कौन से महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनके बारे में इन्होंने अपनी सलाह दी या नहीं दी?
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