हिंदी हूँ मैं!
हिंदी हमारी मातृभाषा है, और भाषा का अपना विशेष महत्व होता है। इसके लाभ और अनिवार्यताएँ हैं, लेकिन जब भाषा में अनियंत्रित रूप से अन्य भाषाओं का संकरण होता है, तो उसकी मौलिक छवि पर आघात पहुँचता है। इससे भाषा अपने मूल स्वरूप से भटक जाती है और मलिन होने लगती है। आज के युग में हिंदी में हो रहे नए-नए प्रयोगों ने उसकी छवि को धूमिल कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी में बिंदी लगाने का भाव कहीं खो सा गया है।
नई भाषाओं के आगमन और आम बोलचाल में ‘खिचड़ी भाषा’ के प्रयोग ने हिंदी की शुद्धता में हानि पहुँचाई है। आज का युवा अपनी मातृभाषा के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करता है जैसा कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी ग्रामीण माँ के साथ करता है—उसे अपनी मातृभाषा के प्रयोग में लज्जा महसूस होती है। इसके साथ ही वह समाज में स्वयं को हिंदी के आधार पर कम आँकने लगता है जबकि ये कोई भाषाई प्रतिस्पर्धा का विषय है ही नहीं।
इस बदलाव में समाचार पत्रों और सोशल मीडिया ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजकल के ख्याति प्राप्त प्रमुख समाचार पत्रों में “स्कूलों” जैसे अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है, जबकि हिंदी में इसका शुद्ध रूप “विद्यालयों” है, यहाँ क्या तो ‘स्कूल्स’ का प्रयोग होना चाहिये या ‘विद्यालयों’ का क्योंकि “स्कूलों” जैसा कोई मानक शब्द है ही नहीं और भी ना जाने ऐसे कितने शब्द है जिनका प्रयोग बारम्बार होता जा ही जा रहा है परंतु चलिये छोड़िये। अंग्रेजी और हिंदी के इस संकरण ने “हिंग्लिश” जैसी एक नई अवांछित संतति को जन्म दे दिया है, जिसे आज के जनमानस ने आसानी से अपना लिया है।
हिंदी की मौलिकता अब केवल गिने-चुने लोगों तक सीमित रह गई है। हिंदी के चंद्रबिंदु ने भी अब धरती पर रहना उचित नहीं समझा इसलिए वह भी आकाश में जाकर चाँद में विलीन सा हो गया है क्योंकि वह अब सोचने लगा है कि पृथ्वी लोक के लोग उसका सद्पयोग करना भूल गए हैं और अब उसकी धरती पर कोई विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। यह स्थिति हमारे लिए सोचनीय है, क्योंकि हिंदी जैसे समृद्ध भाषा के प्रति यह उदासीनता भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
आज का युवा ‘याहू’ से लेकर ‘यो-यो’ तक की यात्रा में कहीं खो गया है और एक विचित्र सी नई भाषा का दीवाना बन गया है। कविता, कहानियों और साहित्य से दूर होकर वह नई शब्दावली में अपनी पहचान ढूँढने लगा है। हिंदी की आराधना करने वाले विद्वानों को इस बात की व्यथा रही कि उनकी भाषा को कभी वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वह अधिकारिणी थी। पीढ़ी दर पीढ़ी लोग हिंदी की सौम्यता से दूर होते चले गए।
सामाजिक कार्यकर्ता दीपेश कुमार सैन ने बताया कि हिंदी पूर्णतः संपूर्ण है, या अन्य भाषाओं के शब्द इसमें नहीं जुड़ने चाहिए। परंतु हमें यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि इस संकरण से हिंदी की आत्मा को ठेस न पहुंचे। कमियाँ हर चीज में होती हैं, लेकिन जैसे हम अपनी माँ का आँचल नहीं छोड़ते वैसे ही हिंदी से मुँह मोड़ लेना उचित नहीं। हमारी पहली आवाज, पहला शब्द हिंदी का था, फिर बड़े होने पर हम उससे सौतेला व्यवहार क्यों करने लगते हैं?
यह अचरज की बात है कि जब लोग कहते हैं, “मुझे क्षमा करना, मेरी हिंदी कमजोर है,” तब उनके चेहरे पर लज्जा के स्थान पर गौरव की आभा होती है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य भाषाओं से दूरी बना लो, लेकिन अपनी मातृभाषा का अपमान तो मत करो। जिस तरह माँ का दर्जा सर्वोपरि होता है, उसी तरह मातृभाषा का भी।
विडंबना रही की हिंदी कभी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई, यद्यपि 14 सितंबर 1949 को इसे राजकीय भाषा का दर्जा भर मिल सका। अन्य भाषाओं की लोकप्रियता या चलन के कारण हिंदी विश्व स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाई। यह युवाओं के लिए एक सोचने का विषय है कि कैसे अपनी मातृभाषा को वैश्विक पटल पर लाया जा सकता है। हमें इसके लिए अथक प्रयास करने चाहिए, ताकि हिंदी की गरिमा और पहचान अपने मूल भाव के साथ सदैव बनी रहे।- दीपेश कुमार सैन