किसी भी संवैधानिक देश में पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाता है। क्योंकि मीडिया समाज व सरकार का आईना बनकर राष्ट्र के उत्थान में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाता है। कोई भी देश तभी सशक्त बनता है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।
गौरतलब है कि राजस्थान सरकार ने हाल ही में 2 विधेयक पेश किए थे। इन विधेयकों पर बात-बात पर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने तो विरोध जताया ही लेकिन प्रदेश के प्रमुख हिंदी समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका ने भी विपक्ष की भूमिका निभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि बाद में राज्य सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा की प्रवर समिति के पास पुनर्विचार के लिए भेज दिया। यह मीडिया समूह इससे पहले भी कई बार सरकार विरोधी गतिविधियों में खुलकर शामिल हो चुका है। निजी द्वंदता के चलते पत्रिका समूह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से संबंधित समाचारों से पहले भी परहेज करता आया है लेकिन इस मुद्दे पर अपना मास्टर स्ट्रॉक खेलते हुए इस समूह ने विपक्ष से जमकर सहानुभूति बटोरी और लोकतंत्र की दुहाई देते हुए संपादक गुलाब कोठारी ने फरमान जारी कर दिया कि हमारा समाचार पत्र अब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनसे जुड़ी कोई भी खबर प्रकाशित नहीं करेगा।
इसके बाद पत्रिका ने राज्य सरकार के सभी सकारात्मक कार्यों पर आंखें मूंद ली और उनमें से नकारात्मक खबरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया। अपनी दोगली नीतियों और अपने ही कर्मचारियों के साथ अन्याय के चलते भीतरघात के शिकार इस मीडिया समूह ने विपक्ष का हाथ अपने सिर पर पाकर समाज तक को पक्षपातपूर्ण खबरें पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पत्रिका ने अब मुख्यमंत्री की तस्वीर तक अपने अखबार में छापना बंद कर दिया। लेकिन विज्ञापन रूपी मलाई बटोरने में पत्रिका हमेशा आगे रहा। सरकार के चार वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में अखबार ने जितनी हो सकी नकारात्मक खबरें छाप दी, लेकिन लाखों रुपये के विज्ञापन छापना भी नहीं भूला। यहां उनके सिद्धांत धरे के धरे रह गए और मोटी कमाई करने बाबत् बड़े-बड़े विज्ञापन अपने सभी संस्करणों में छपवा दिए।
अब यहां समझने वाली बात यह है कि ऐसे मीडिया समूह को लोकतंत्र की आड़ में कुछ भी करने की इजाजत भला कैसे दी जा सकती है ? अभिव्यक्ति के नाम पर चल रहे ऐसे उद्योग धंधें भला लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर पाएंगे ? यह लोकतंत्र का उद्योग धंधा है जो राजनैतिक द्वेषता के चलते समाज व लोगों के मौलिक अधिकारों से भी खेलता है।
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