आज गणेश चतुर्थी है। आज के पावन दिन घर-घर में गणपति विराजमान होंगे। निश्चित तौर पर आप सब भी लंबोदर के दर पर जाएंगे और गणपति बप्पा मोरया का जयकारा भी जरूर लगाएंगे। लेकिन क्या आप जानते हें कि गणपति बप्पा मोरया में ‘मोरया’ का क्या मतलब है और क्यों इस शब्द को इस जयकारे में लाया जाता है। अगर नहीं जानते हैं तो कोई बात नहीं। इस खास भक्तिमय लेख में हम बताने जा रहे हैं आपको मोरया की अलौकिक कहानी कि आखिर कहां और क्यों इस नाम को गणेशजी के नाम से जोड़ दिया गया। आइए जानते हैं ….
आस्था की इस कहानी का उदय 600 साल पहले हुआ था और तब यह इस कहानी के साथ उनकी यात्रा अनवरत रुप से जारी है। इस यात्रा में करोड़ों भक्त शामिल हैं। हुआ कुछ यूं कि 14वीं शताब्दी में पुणे से 18 किलोमीटर दूर चिंचवाड़ इलाके में मोरया गोसावी का एक महान गणपति भक्त का जन्म हुआ। मोरया गोसावी हर गणेश चतुर्थी को चिंचवाड़ से पैदल चलकर 95 किलोमीटर दूर मयूरेश्वर मंदिर में भगवान गणेश के दर्शन करने जाते थे। ये सिलसिला उनके बचपन से लेकर 117 साल तक चलता रहा।
उम्र ज्यादा हो जाने की वजह से उन्हें मयूरेश्वर मंदिर तक जाने में काफी मुश्किलें पेश आने लगी थीं। तब एक दिन गणपति उनके सपने में आए। कहा कि जब स्नान करोगे तो मुझे पाओगे। जैसा सपने में देखा था, ठीक वैसा ही हुआ। मोरया गोसावी जब कुंड से नहाकर बाहर निकले तो उनके हाथों में मयूरेश्वर गणपति की छोटी सी मूर्ति थी। उसी मूर्ति को लेकर वो चिंचवाड़ आए और यहां उसे स्थापित कर पूजा-पाठ शुरू कर दी। धीरे-धीरे चिंचवाड़ मंदिर की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैल गई। महाराष्ट्र समेत देश के अलग-अलग कोनों से गणेश भक्त यहां बप्पा के दर्शन के लिए आने लगे।
आज यह मंदिर मोरया गोसावी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर में प्रवेश करते ही कण-कण में भगवान गणेश की छाप दिखेगी, ऐसा यहां आए प्रत्येक भक्त का कहना है। मोरया गोसावी का जन्मस्थल और उनकी समाधी भी गणेश भक्तों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। यहां आने वाले भक्त सिर्फ गणपति बप्पा के दर्शन के लिए नहीं आते थे, बल्कि विनायक के सबसे बड़े भक्त मोरया का आशीर्वाद लेने भी आते थे। भक्तों के लिए गणपति और मोरया अब एक ही हो गए थे। यही वजह है की चिंचवाड़ गावों में लोग जब एक दूसरे से मिलते हैं तो वह नमस्ते नहीं बल्कि मोरया कहते हैं। ‘गणपति बप्पा मोरया’ के जयकारे का उदय यहीं से माना जाता है।
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