बचपन में स्कूल की किसी किताब में एक कहानी थी कि सरकारी काम के लिए जब तक फाइल पर वजन नहीं रखो, फाइल आगे नहीं बढ़ती। देश में कांग्रेस पार्टी की जितनी भी सरकारें रही फिर वो चाहे केंद्र में हो या राज्य में सबने ये बात सिद्ध करके दिखायी है। एक ज़माना था जब जनता को राजकीय काम करवाने के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ते थे। उसके बावजूद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि उनका काम हो जायेगा। कुल मिलकर बात ये थी कि सरकारी दफ्तरों का भी वही हाल था जो हमारी कानून व्यवस्था का। लेकिन जैसे ही भाजपा सरकार ने सत्ता में दख़ल-अंदाज़ी देना शुरू किया, काम-काज का ये सरकारी ढर्रा पीछे छूटता गया।
पहले क्या हैं ना कि सरकारी कर्मचारियों को भी खाने की आदत हो गयी थी। जब खाएंगे नहीं तो फिर निकालेंगे कैसे? फाइल को…! आगे के लिए। एक मित्र के परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी में है, और वो भी ऐसे डिपार्टमेंट में जिसे लोग सबसे ज्यादा आशीर्वाद देते हैं। समझ तो आप गए ही होंगे, काफी समझदार हैं आप। उनसे एक बार मज़ाक-मज़ाक में पूछ लिया, लेते हो? उन्होंने भी बड़ी बेशर्मी से जवाब दिया, जी हाँ बिल्कुल लेते हैं। फिर भारत के ज़िम्मेदार नागरिक की तरह ज्ञान देने वाली मुद्रा में पूछा क्यों लेते हो भाई? तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर मुझे लगा कि उनसे अच्छे तो लोग बेरोजगार ही भले। आखिर किसी का फ़ोकट में आशीर्वाद तो नहीं लेते। महाशय का जवाब था, जितनी तनख़्वाह मिलती है उसमे पूरा नहीं पड़ता। इसलिए लेते हैं। और फिर नौकरी के लिए हमने भी तो दिए थे। सो अब वसूल रहे हैं।
दूसरा किस्सा ये कि क्यों किसी को कुछ देने की जरुरत पड़ती है? किसी महाशय ने बड़े जतन से तैयारी करके किसी सेना की परीक्षा पास की थी। हालांकि वही शख़्स पहले एक बार उसी राज्य की पुलिस भर्ती के लिए शारीरिक दक्षता की परीक्षा पास कर चुका था। लेकिन मेरिट लिस्ट में रह गया। उस बात का उसे कोई मलाल नहीं था कि लिखित परीक्षा में कम नम्बरों की वजह वो मेरिट लिस्ट में जगह नहीं बना पाया। लेकिन इस बार तो सब कुछ ठीक था, लिखित परीक्षा भी पूरे नम्बरों से पास की, शारीरिक चुनौतियां भी सारी पार कर ली। फिर भी किसी ऐसे व्यक्ति से पाला पड़ गया, जिसे खाने की आदत थी। बस फिर क्या था? झूठा बहाना लगाकर लाट साहब ने बन्दे को भर्ती करने से मना कर दिया कि अपने शारीरिक परीक्षा पास नहीं की। लेकिन जब प्रतियोगी ने सभी शारीरिक बाधाएं पार करने की बात बताई तो लाट साहब अड़ गए। बोले तुम हमसे ज्यादा जानते हो क्या? हम यहाँ ऐसे ही नहीं बैठे। और अब अगर तुमको नौकरी चाहिए तो हमे कुछ बख्शीस देनी होगी। वो शख़्स आज भी कोई ढंग का रोजगार नहीं कर पा रहा है। अगर उस वक़्त गर उसके पास 25 हज़ार रूपये होते तो वो भी कहीं इंपेक्टर के पद पर नौकरी कर रहा होता और वो भी दूसरों से बख्शीस खा रहा होता। और अगर उससे किसी ने बख्शीस नहीं मांगी होती तब भी वह नौकरी कर रहा होता, लेकिन फिर वह किसी और से बख्शीस खाने के बजाय किसी जरुरतमंद की मदद कर रहा होता। मगर एक भूखे व्यक्ति ने उसकी नौकरी नहीं लगने दी।
ऊपर के दोनों किस्सों की सभी घटनाएं एवं पात्र पूरी तरह से वास्तविक है, जिनका अभी भी जीवित व्यक्तियों से सम्बन्ध है। अगर किसी अन्य व्यक्ति या घटना के साथ इनकी सामानता होती है, तो उसे केवल संयोग नहीं हकीकत कहा जायेगा। ये बात अभी इसलिए कर रहे हैं क्योंकि राजस्थान विधानसभा चुनावों से पहले किसी मित्र से बेरोजगारी को लेकर चर्चा हुई थी। पेशे से पत्रकार हमारे मित्र ने बताया की रोजगार तो वर्तमान सरकार ने भी दिए हैं लेकिन जनता भाजपा सरकार की सिर्फ इसलिए बुराई कर रही है, क्योंकि इस सरकार में कोई किसी की सुनता नहीं है। हमारे कारण पूछने पर उन्होंने बताया कारण ये है कि ये सरकार जान पहचान के नाम पर नौकरी मांगे और देने वालों दोनों को कोई भाव नहीं देती है। इसलिए सब भाजपा सरकार से नाराज है। अभी जब चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनेगी तब देखना कैसे लोग एक फ़ोन में काम होते हैं। किसी की नौकरी, किसी का तबादला, किसी बहाली या किसी की बदहाली। सब एक फ़ोन कॉल की दूरी पर रहेगा।
बाकी अब क्या कहें…! सब बढ़िया है। और चाहतें है की आगे भी बढ़िया ही हो।
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