सरकारी अस्पतालों में कार्यरत सरकारी चिकित्सक अभी तक हड़ताल पर हैं। सरकारी चिकित्सक अपनी 33 सूत्री मांगों की पूर्ति के लिए आंदोलनरत हैं। रेजिडेंट डॉक्टर्स के हड़ताल को समर्थन देने के बाद स्थिति और ज्यादा विकट हो गई है। सरकारी अस्पतालों में मरीज तो उतने ही हैं लेकिन इलाज के अभाव में हालत ज्यादा खराब नजर आ रही है। प्रदेशभर में अब तक 25 लोगों की मौत की खबर है। राजस्थान सरकार और चिकित्सकों के पेच के बची फंसी हुई आम जनता आखिर क्या चाहती है, यह जानना भी जरूरी है।
जनता का मानना है कि चिकित्सकों की जिद जायज हो सकती है लेकिन मरीजों को इलाज के अभाव में मरते हुए देखना कहां तक सही है। क्या यही भगवान का दूसरा रूप है जिसने मानवता को मरने के लिए छोड़ दिया है। राजस्थान सरकार के सकारात्मक रवैये के बावजूद इस तरह की हड़ताल और जिद क्या चिकित्सकीय धर्म है। एक चिकित्सक ही ईश्वर का दूसरा रूप है जो लोगों की सहायता करता हैै। फिर यह हड़ताल क्या उचित है। राज्य सरकार ने सेवारत चिकित्सक संघ की 33 सूत्री मांगों एवं एक अतिरिक्त मांग पर पूरी संवेदनशीलता के साथ कार्यवाही शुरू की और समस्याओं का समाधान करना चाहा, लेकिन इसके बाद भी चिकित्सकों ने हठधर्मिता अपनाकर चिकित्सा सेवाओं में अनुपस्थित रहना कहां तक जायज है।
आमजन का यह भी कहना सही है कि अगर डॉक्टर्स ही एक पारी में आने की जिद करने लगेंगे तो शाम को जो मरीज अस्पताल में आते हैं, उनका क्या होगा। क्या यह अपने फर्ज से मुंह मोड़ने जैसा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एमबीबीएस छात्रों से 5 सालों में औसतन 14 हजार फीस लेने के बाद हर विद्यार्थी पर सरकार 64 लाख रूपए का खर्चा करती है। सरकारी सेवाओं में जाने के बाद 60 हजार रूपए प्रति माह का वेतन देती है। उसके बाद भी उनका इस तरह हठ करना कहां तक न्याय संगत है। मानवता के प्रति चिकित्सक इतने उदासीन कैसे हें। एक डॉक्टर एक मरीज का इलाज करने से कैसे मना कर सकता है। और तो और उसे मरते हुए कैसे देख सकता है।
आमजन का यह कहना भी गलत नहीं है कि एक तरफ तो सरकार सरकारी चिकित्सकों को रहने के लिए सरकारी घर, भत्ता, धोबी आदि का खर्चा मुफ्त दे रही है वह भी मोटे वेतन के साथ। उसके बाद भी इस तरह की शर्मनाक हरकतें भगवान का दर्जा लिए हुए सरकारी चिकित्सकों के लिए बड़े ही शर्म की बात है।
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