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भारतीय राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर
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भारतीय राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर

भारतीय राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर की आज 158वीं जयंती है। इस उपलक्ष में मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने उन्हें याद करते हुए नमन किया है। अपने संदेश में मुख्यमंत्री ने कहा है, ‘नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार एवं भारतीय राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोरजी की जयंती पर उन्हें शत्-शत् नमन।’

नोबेल पुरस्कारधारी इकलौते भारतीय

रबिन्द्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक थे। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे। वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं। पहली भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ और दूसरी बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’।

रबिन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी

रबिन्द्रनाथ का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। वह अपने मां-बाप की तेरह जीवित संतानों में सबसे छोटे थे। उन्होंने इतिहास, खगोल विज्ञान, आधुनिक विज्ञान, संस्कृत, जीवनी का अध्ययन किया और कालिदास के कविताओं की विवेचना की। उनके सबसे बड़े भाई द्विजेन्द्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे। उनके एक भाई सत्येन्द्रनाथ टैगोर इंडियन सिविल सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे। उनके एक और भाई ज्योतिन्द्रनाथ संगीतकार और नाटककार थे। उनकी बहन स्वर्नकुमारी देवी एक कवयित्री और उपन्यासकार थीं।

अंग्रेजी हुकूमत का अवॉर्ड ठुकराया

रबिन्द्रनाथ टैगोर एक घोर राष्ट्रवादी थे और उन्होंने ब्रिटिश राज की भर्त्सना करते हुए देश की आजादी की मांग की। 14 नवम्बर, 1913 को रविंद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था स्वीडिश अकैडमी ने उनके कुछ कार्यों के अनुवाद और ‘गीतांजलि’ के आधार पर उन्हें यह पुरस्कार देने का निर्णय लिया था। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें वर्ष 1915 में नाइटहुड प्रदान किया लेकिन 1919 के जलिआंवाला बाग़ हत्याकांड के बाद नाइटहुड का त्याग कर दिया। सन 1921 में उन्होंने कृषि अर्थशास्त्री लियोनार्ड एमहर्स्ट के साथ मिलकर ‘ग्रामीण पुनर्निर्माण संस्थान’ की स्थापना की जिसका नाम बाद में बदलकर श्रीनिकेतन कर दिया गया। लंबी बीमारी के बाद 7 अगस्त, 1941 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

भारतीय राष्ट्रवाद का समर्थन

उनके राजनैतिक विचार बहुत जटिल थे। उन्होंने यूरोप के उपनिवेशवाद की आलोचना की और भारतीय राष्ट्रवाद का समर्थन किया। गांधी और अम्बेडकर के मध्य ‘अछूतों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल’ मुद्दे पर हुए मतभेद को सुलझाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

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