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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

आर्य समाज के प्रवर्तक, प्रखर चिंतक व समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती की पुण्यतिथि आज

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महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

आर्य समाज के प्रवर्तक, प्रखर चिंतक व समाज सुधारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज पुण्यतिथि 136वीं पुण्यतिथि है। वह एक आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, एक संन्यासी व देशभक्त थे। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बनाया था। साथ ही बाल विवाह और सती प्रथा जैसी विभिन्न कुरीतियों, रूढ़िवादी परंपराओं तथा अंधविश्वासों के विरुद्ध जनता को जागरूक करने में महत्ती भूमिका निभाई। उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि प्रेषित की है।


महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती 12 फरवरी, 1824 में गुजरात के मोरवी के टंकारा गांव में हुआ था। उनका असली नाम मूलशंकर था। उनके पिता करशनजी लालजी तिवारी एक कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। बचपन में घटित हुई एक घटना का उनके बाल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि छोटी आयु में स्वामीजी सत्य की खोज में निकल पड़े। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना के साथ ही भारत में डूब चुकी वैदिक परंपराओं को पुनर्स्थापित करके विश्व में हिन्दू धर्म की पहचान करवाई। उन्होंने हिन्दी में ग्रंथ रचना आरंभ की तथा पहले के संस्कृत में लिखित ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। महर्षि दयानंद सरस्वती का भारतीय स्वतंत्रता अभियान में भी बहुत बड़ा योगदान था।

राजस्थान की राजनीतिक चेतना में योगदान

स्वामीजी का राजस्थान में राजनीतिक चेतना जागृत करने एवं शिक्षा प्रसार में स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामीजी का प्रदेश में पहली बार आगमन 1865 में करौली के राजकीय अतिथि के रूप में हुआ जहां उन्होंने किशनगढ़, जयपुर, पुष्कर एवं अजमेर में अपने उदबोधन दिए। स्वामीजी दूसरी बार 1881 में भरतपुर और यहां से चित्तौड़ पहुंचे। उदयपुर में फरवरी, 1883 में स्वामीजी के सान्निध्य में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना हुआ। बाद में विष्णुलाल पंड्या ने मेवाड़ में आर्य समाज की स्वापना की। उन्होंने ‘वेदों की ओर चलो’नारा देकर जीवन में वेदों की उपयोगिता को समझाया। अपने व्याख्यानों में स्वामीजी क्षत्रिय नरेशों के चरित्र संशोधन और गौरक्षा पर विशेष बल दिया करते थे। उन्होंने स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी और स्वभाषा पर जोर दिया। साथ ही उन्होंने व उनकी संस्था ने प्रदेश में स्वतंत्र विचारों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। उन्होंने समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया और आवाज उठाई। कहा जाता है एक वेश्य नन्हीजान ने स्वामीजी को दूध में विष मिलाकर दिलवा दिया जिससे 30 अक्टूबर, 1883 में अजमेर में उनका निधन हो गया।

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