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म​हर्षि दयानंद सरस्वती

आर्य समाज संस्था के संस्थापक वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती की आज जयंती है। आज उनकी 194वीं जयंती है। दयानंद सरस्वती जाति से एक ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने ब्राह्मण को शब्दों से नहीं बल्कि कर्मो से परिभाषित किया। उनके अनुसार, ‘ब्राह्मण वही होता है जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी।’ निराकार ओमकार में भगवान का अस्तित्व हैं, यह कहकर इन्होने वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया। स्वामीजी ने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान से लाभान्वित किया। उन्होंने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया। देशभर में प्रख्यात महर्षि दयानंन सरस्वती विश्वविद्यालय उनके नाम से ही संचालित है। कुछ इसी तरह की शख्सियत का नाम है महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती।

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म​हर्षि दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम मूलशंकर तिवारी है। उनका जन्म 12 फरवरी, 1824 को एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका परिवार सदैव धार्मिक अनुष्ठानों में लगा रहता था। एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही रात्रि जागरण व्रत का पालन करने कहा। पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत का पालन किया पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिये वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गए। अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा, जिसमें चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और सारा प्रसाद खा रहे हैं। तब मूलशंकरजी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला ही हैं जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया और स्वयं को ज्ञान के जरिये मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती बनाया।

वह जब तक जीवित रहे, समाज को नई दिशा एवं वैदिक ज्ञान का महत्व समझाया। साथ ही कर्म और कर्मो के फल का ही जीवन का मूल सिद्धांत बताया। एक महान विचारक होने के नाते उन्होंने समाज को धार्मिक आडम्बरों से दूर करने का प्रयास किया। उनके इस काम में आर्य समाज ने प्रमुख भूमिका निभाई।

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यहीं से उनके जीवन में बदलाव आया और 1846 में केवल 21 वर्ष की आयु में उन्होंने सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली। उन्होंने बाल विवाह और मूर्ति पूजा सहित राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों का जन्मपरंत विरोध किया। 1857 की क्रांति में भी स्वामीजी ने अपना अमूल्य योगदान दिया और अंग्रेजी हुकूमत से जमकर लौहा लिया। इसी दौरान 1875 में गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य धर्म मानव धर्म था। उस समय में इस संस्था का विरोध कईयों ने किया लेकिन स्वामीजी के तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक न सका। आपको बता दें कि उस समय में क्रांतिकारी तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां और बाला साहब सहित अनेकों स्वामीजी के विचारों से प्रेरित थे। एक देशभक्त होने के नाते उन्होंने ही सबसे पहले स्वराज्य का संदेश फैलाया जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और ‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया।

उनमें ज्ञान की तीव्र चाह थी। इसी चाह में वें स्वामी विरजानंदजी से मिले और उन्हें अपना गुरू बनाया। गुरू से मार्गदर्शन मिलने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने समूचे राष्ट्र का भ्रमण किया और वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने सभी धर्मों के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनमें व्याप्त बुराईयों का खुलकर विरोध किया। इस दौरान उन्हें कई विपत्तियों का सामना किया और अपमानित भी हुए लेकिन उन्होंने अपना मार्ग नहीं छोड़ा।

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यहां एक छोटी कहानी का जिक्र करना भी जरूरी है। संस्कृत के प्रकांड विद्धान होने के नाते उन्होंने अपने सभी व्याख्यान संस्कृत में ही दिए। एक बार स्वामीजी कलकत्ता गए और वहां केशन चन्द्र सेन से मिले जिन्होंने स्वामीजी को एक परामर्श दिया। केशन चन्द्र ने स्वामीजी से कहा कि वें अपना व्याख्यान संस्कृत में न देकर आर्य भाषा यानि हिंदी में दे ताकि साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी से पहुंच सके। इसी परामर्श ने उनके विचारों को समूचे भारतवर्ष में फैलाकर एक क्रांति सी ला दी।

वह स्वामीजी ही थे जिन्होंने सबसे पहले बाल विवाह, सती प्रथा व वर्ण भेद का विरोध करते हुए समाज में व्याप्त विधवा विवाह व नारी शिक्षा शिक्षा का समर्थन करते हुए एकता का संदेश भी दिया। उनके खिलाफ एक षड्यंत्र के चलते 30 अक्टूबर, 1883 को उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उनके विचारों हमेशा सभी हिंदूवासियों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत का काम करेंगे।

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