जयपुर। आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर देशभर में अब सियासी पारा हर दिन बढ़ता ही जा रहा है। सत्ता की इस महाभारत में एक-दूसरे को मात देने के लिए कांग्रेस, भाजपा सहित सभी बड़ी पार्टियां अपनी सेना और रणनीति के साथ राजनीति की पिच का समीकरण अपने पक्ष में करने के लिए जुट चुकी है। लोकसभा की यह महाभारत इसलिए और ज्यादा अहम हो जाती है क्योंकि इस बार सत्ताशीन भाजपा से कुर्सी छीनने के लिए देश के करीब 75 फीसदी बड़े दल एक साथ आ रहे हैं। वैसे तो वैचारिक मतभेदों वाली इन पार्टियों के लिए महागठबंधन की डगर आसान नहीं होगी। लेकिन, फिर भी यदि यह गठबंधन बनता है तो इसकी मजबूत गांठे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर देगा।

राजस्थान में वसुंधरा पर कशमकश

कुल 545 सीटों वाले इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस सहित सभी पार्टियां विभिन्न राज्यों में अपने-अपने महारथियों के साथ चुनावी मैदान में उतरने को तैयार है। लेकिन इनमें से 25 सीटें रखने वाले प्रदेश राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी अभी कश्मकश की स्थिति में है। राजस्थान में पायलट के बयान के बाद साफ हो गया है कि कांग्रेस में टिकटों का वितरण मुख्यमंत्री गहलोत के सान्निध्य में होगा तो वहीं चुनावों की कमान सचिन पायलट खुद संभालेंगे। लेकिन भाजपा किस नेता के सान्निध्य में चुनावी नैया पार करेगी इस पर अभी सहमति नहीं बन पाई है। गौरतलब है कि हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। इनमें से तीन राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा अपना किला भी गंवा बैठी। भाजपा विरोधी इस लहर के बावजूद राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी हालांकि विजय तो हासिल नहीं कर सकी। लेकिन 73 सीटें जीतकर वसुंधरा ने एक बार फिर आलाकमान को अपनी ताकत दिखाई। सूत्रों की माने तो भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व वसुंधरा के प्रदर्शन से खुश तो है परंतु लोकसभा चुनावों की कमान नए हाथों में सौंपना चाहता है।

मरुधरा में वसुंधरा का नहीं है कोई विकल्प

राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत के बाद वसुंधरा ने जिस कुशलता से प्रदेश की कमान संभाली, उससे राजे की छवि राजस्थान में ही नहीं बल्कि देश में भी एक सधी हुई नेता के रूप में बनीं। यह उनकी कार्यकुशलता का ही प्रमाण है कि वर्ष 2003 के विधानसभा चुनावों की जिम्मेदारी केन्द्रीय नेतृत्व ने राजे को सौंपी तथा उस विश्वास पर खरे उतरते हुए वसुंधरा ने 120 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में मामूली हार के बाद वसुंधरा को सर्वसम्मति से नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। इसके बाद वर्ष 2013 का विधानसभा चुनाव भी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा गया और पार्टी ने 163 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत की सरकार बनाई। आलाकमान ने दोनों चुनावों में जीत का सेहरा वसुंधरा राजे के सिर बांधा और उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। वहीं हाल ही में हुए विस चुनाव में भाजपा विरोधी लहर के बावजूद भाजपा को 73 सीटें दिलाकर राजे ने एक बार फिर राजनीति की पिच पर एक मंझे हुई खिलाड़ी का परिचय दिया।

वसुंधरा की नजरअंदाजी भाजपा पर पड़ेगी भारी

लोकसभा चुनावों को लक्ष्य मानकर भाजपा जहां अपने विकास कार्यों को लेकर खुद की पीठ थप-थपा रही है। वहीं कांग्रेस हर मुद्दे को सियासी तीर से भेदने की कोशिश में जुटी है। ऐसे में एक बात तो स्पष्ट है कि भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व भले ही अपनी जीत के कितने भी दावे करता हो। लेकिन, राजस्थान में वसुंधरा राजे के बिना मिशन-25 का लक्ष्य हासिल करना मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बहुत मुश्किल है। बताया जा रहा है कि भाजपा प्रदेश में नए योद्धा की तलाश कर रही है। राजनीतिक पंडितों की मानें तो राजस्थान के रण में भाजपा चाहे कितने ही अर्जुन क्यों ना उतार लें, परंतु वसंधुरा राजे यदि इस रथ की सारथी नहीं बनी तो भारतीय जनता पार्टी के लिए लोकसभा का यह युद्ध जीतना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लग रहा है। अतः भाजपा आलाकमान को एक बार फिर यह विचार कर लेना चाहिए कि श्री कृष्ण यदि अर्जुन के सारथी नहीं होते तो महाभारत मे पांडवों की जीत मुश्किल थी।