रामगढ़ विधानसभा में चुनावी प्रचार के दौरान अशोक गेहलोत, सचिन पायलट और अविनाश पांडेय

राजस्थान विधानसभा चुनावों को एक महीना, बीस दिन गुजर चुके हैं। उस वक़्त 200 विधानसभा सीटों में से केवल 199 सीटों पर ही चुनाव हुए थे। क्योंकि रामगढ़ विधानसभा के तत्कालीन बसपा प्रत्यासी की मौत हो गयी थी। इसलिए वहां के चुनावों को स्थगित कर दिया था। फिर चुनाव आयोग ने रामगढ़ चुनावों के लिए 28 जनवरी की तारीख़ मुक़र्रर की। तय दिन पर चुनाव हुए। तय दिन 31 जनवरी को चुनावों के नतीजे भी आ गये। जो नतीजे आये वो लोग पहले से ही जानते थे। कांग्रेस प्रत्यासी सफिया ख़ान ने रामगढ़ चुनाव जीत लिया। एक बात आपको बताते चलें कि रामगढ़ चुनावों को लेकर बड़ा कन्फ़्यूज़न है। लोग रामगढ़ चुनावों को उपचुनावों का नाम दे रहे हैं। जबकि ये मुख्य चुनाव ही हैं।

तो उपचुनाव कब होते हैं :

उपचुनाव तो उन्हें कहा जाता है। जब किसी सीट के लिए चुनाव मुख्य चुनाव पहले ही हो चुके हो। लेकिन किसी परिस्थिति या कारणवश जीतने वाला प्रत्यासी अनुपलब्ध हो। वो कारण कोई भी हो सकता है। तब जो चुनाव करवाए जाते हैं। उन्हें उपचुनाव कहा जाता है। तो सफिया खान ने 12228 मतों से ये चुनाव जीत लिए। जबकि उनके निकटतम भाजपा प्रतिद्वंदी सुखवंत सिंह को 71083 वोट मिले। गौरतलब है, सुखवंत सिंह को ये वोट उस स्थित में मिले जब भाजपा का कोई भी बड़ा चेहरा वहां ना तो वोट मांगने गया और ना ही चुनाव प्रचार के लिए गया। मगर कांग्रेस की तरफ से वहां मंत्री, मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री, चिकित्सा मंत्री, परिवहन मंत्री सब वोट मांगने के लिए पहुँच गए थे। कहने का मतलब है कि कांग्रेस ने उतने वोट मेहनत करके हासिल नहीं किये जितने वोट बीजेपी ने बिना प्रचार प्रसार के कर लिए।

कांग्रेस जीत तो गयी मगर भाजपा को हरा हुआ भी नहीं मान सकते :

अब भाजपा की तरफ से किसी भी बड़े नेता ने रामगढ़ में कोई चुनावी रैली नहीं की तो कह सकते हैं, की भाजपा उम्मीदवार को 71083 वोट मिलना भी अपने आप में जीत से कम नहीं। लेकिन कहते हैं ना हार तो हार होती है। फिर वो चाहे एक वोट से ही क्यूं ना हो। इस बात को वर्तमान अध्यक्ष सीपी जोशी से बेहतर कौन समझ सकता है? भाजपा प्रत्यासी ने बिना आलाकमान के योगदान के भी अच्छा प्रदर्शन किया है। इससे ये मतलब निकाल सकते हैं, कि भाजपा को राजस्थान में जीत के लिए वसुंधरा राजे को मुख्य चेहरे के रूप में रखना ही होगा। वरना नहीं रखने के नतीजे तो हर पांच साल में मिल जाते हैं। इस जीत से कांग्रेस को भी ज़्यादा ख़ुशी नहीं मिली होगी। कांग्रेस अपनी 100 विधानसभा सीटें पूरी करने का जश्न भले ही मना रही हो। परन्तु अभी भी पूर्ण बहुमत से एक सीट दूर ही है। अर्थात कांग्रेस सरकार अभी भी पोलियो ग्रस्त ही कहलाएगी।

किस पार्टी के नेता क्या बोले :

रामगढ़ विधानसभा चुनाव के बाद दोनों पार्टी के नेताओं ने अपने-अपने हिसाब से बयान दिए। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव जुबेर खान कहते हैं कि जो लोग कथित तौर पर रामगढ़ में गोरक्षक बनते थे, वो अब बेरोजगार हो जाएंगे। उन्होंने भाजपा पर हमला बोलते हुए कहा कि रामगढ़ में कई समस्याएं थी, लेकिन ने उस ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। जब न्यूज़ 18 के संवाददाता गोवर्धन ने उनसे पूछा कि रामगढ़ में अभी भी गौ तस्करी के कई माले आये दिन उजागर हो रहे हैं। तो ज़ुबेर खान जवाब नहीं दे पाए। सिर्फ़ कांग्रेस की जीत की बधाई देकर कन्नी काट गए। जबकि भाजपा के कई नेताओं और ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मानना है, अगर वसुंधरा राजे एक बार भी चुनाव प्रचार के लिए आ जाती तो शायद ये सीट भाजपा के खाते में जुड़ जाती। वजह पिछले दस सालों से भाजपा ही इस सीट पर काबिज़ थी। किन्तु इस बार निगाहें चूकि और माल दोस्तों का हो गया।

राजस्थान की राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा :

प्रत्यक्ष रूप से तो राजस्थान की राजनीती पर इसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता। क्योंकि एक सीट जीत जाने से ना तो कांग्रेस को कोई फर्क पड़ा। ना भाजपा फिर से सत्ता में आ गयी। लेकिन गहराई से अध्यन करने पर पता चलता है कि अगर भाजपा की केंद्रीय कार्यकारिणी की राज्यों के बड़े नेताओं के साथ इसी तरह खटपट चलती रही। तो 2018 के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के जो नतीजे रहे। उस हिसाब से बाकी के राज्यों में और आने वाले लोकसभा चुनावों में भी इसका असर देखने को मिल सकता है। इसी सवाल को लेकर 1st इंडिया न्यूज़ ने भी ट्वीट किया है।

काफ़ी पुरानी है पार्टियों की कलह :

राजनीति पार्टियों की ये अंतर्कलह आज की नहीं है। ये बहुत पुराने समय से चलती आयी है। फिर चाहे कोई भी पार्टी हो। विचारों का मतभेद हर जगह देखने को मिला है। इस मामले कांग्रेस तो भाजपा से दो क़दम आगे है। भाजपा की अंतर्कलह तो ज़ल्दी से उजागर नहीं होती मगर कांग्रेस की अंतर्कलह तो सर्वविदित हो जाती है। कोई लाख़ मना कर ले मगर इस बात से कांग्रेस इंकार नहीं कर सकती। विधानसभा चुनावों से भी 6 महीने पहले से कांग्रेस की ये कलह जारी है। वहीं भाजपा में भी विधानसभा चुनावों में टिकिट वितरण को लेकर केंद्र और राज्य के भाजपा नेतों के आपसी टकराव से भी कोई स्पष्ट रूप से ना नहीं कह सकता।

अब राजनीतिक पार्टियों में कितनी भी अंतर्कलह हो। चाहे जितना आपसी टकराव हो। लेकिन विचारों की इस प्रतिद्वंदिता में जनता का नुकसान नहीं होना चाहिए। क्योंकि कई बार जीत के दबाव और हार के डर से पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट दे देती है, जो जीत तो जाते हैं। मगर फिर जनता के लिए अच्छे साबित नहीं होते।  जिससे आने वाले समय के लिए पार्टी की साख़ पर बट्टा लग जाता है। ऐसे में उस पार्टी का जितना और हारना कोई मतलब नहीं रखता। फिर चाहे वो भाजपा हो या कांग्रेस हो।