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इन दिनों आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफ़े पर विपक्ष ने एक बार फिर केंद्र सरकार को घेरा है। कांग्रेस, भाजपा की केंद्र सरकार पर उर्जित पटेल पर दबाव डालने की बात कही है। जिसके जवाब में केन्दीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्पष्ट किया कि भाजपा सरकारों ने कभी भी सार्वजानिक संस्थानों पर कोई दबाव नहीं डाला। बल्कि हमने तो उनको सहयोग किया है। ताकि देश की विकास दर नीचे जाने की बजाय ऊपर बढे।

भारत में आर्थिक मंदी की वजह क्या है?

साल 2008 में लेहमन ब्रदर्स संकट के बाद विश्व में चारों तरफ आर्थिक मंदी का माहौल बन गया था। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक था। उस वक़्त यूपीए सरकार ने क्या किया? कांग्रेस सरकार ने एक विचित्र प्रकार की नीति अपनायी। बैंकों के दरवाज़े सबके लिए खोल दिए। जो जितना लोन, ऋण के तौर पर लेना चाहें ले लें। आम तौर पर हमारी अर्थव्यवस्था में जो क्रेडिट ग्रोथ अच्छा माना जाता है, जैसे कि अगर आपकी ग्रोथ 7, 7.5 या 8 फीसदी है, तो हर साल 13-14 फीसदी की दर से बढ़त अच्छी मानी जाती है। बड़े पैमाने पर उधार देकर क्षमता तो बढ़ा दी। एक साल में 29% ग्रोथ फिर अगले साल 31% ग्रोथ। लेकिन जिनको भी कांग्रेस सरकार ने लोन दिए वो लोग ऐसे व्यापर खड़े नहीं कर पाए जो लम्बे समय तक चल पाते। ऐसे में लोन लेने वाले ज़्यादातर लोग ना तो लोन चुका पाए, ना व्यापर कर पाए और ना ही उस लोन का ब्याज दे पाए। उसके बाद कांग्रेस ने एक और विचित्र काम किया। यूपीए सरकार में पहले से ही 8.50 लाख करोड़ रूपये गैर-प्रदर्शनकारी संपत्तियां (NPA) थीं, जिसे कागजो में सिर्फ़ 2.50 लाख करोड़ रूपये दिखाया गया। और उसे भी NPA घोषित करने के बजाय कह दिया कि इनको और लोन दे देते हैं। जिससे लोन धारक अपना व्यवसाय चला सकें व लोन चुका दें। लेकिन फिर हालत उससे भी ज्यादा ख़राब हो गए थे।

कांग्रेस देश में मंदी की स्थिति पैदा करके गयी थी। और NPA सरकार ने देश की बैंकिंग व्यवस्था को उस मंदी से निकलने के प्रयास किये हैं। जब 2014 में केंद्र में एनडीए सरकार बनी, तब तक ऋणभार इतना बड़ा हो चुका था, जिसे चुकाना किसी के लिए संभव नहीं हो पा रहा था। क्योंकि कांग्रेस की सभी बड़ी व्यपारिक योजनाएं फ़ैल हो चुकी थीं। ऐसे हालातों में दो सालों तक अध्ययन करने के बाद दिसंबर 2016 में एनडीए सरकार ने IBC की कार्यवाही शुरू की, और पहले 3 चरणों में 3 लाख करोड़ रूपये अर्थव्यवस्था में वापिस आ जाते हैं। फिर उसके बाद स्थिति बेहतर होने लगी। दिए गए ऋण पर ब्याज बढ़ रहा था, इसलिए NPA बढ़ रहा था। तो जो NPA दिनों-दिन बढ़ रहा था, वो स्थिर हो गया।

तो क्या अब बैंकिंग मंदी ख़त्म हो गयी?

नहीं! कांग्रेस ने देश को इतने गहरे गढ्ढे में डाला की उससे बाहर निकलना कोई आसान काम नहीं था। NPA आज भी है, लेकिन जो हर दिन ब्याज बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता रहा था। वो कम होना शुरू हो गया। इसलिए भारत की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे दुरुस्त हो रही है। हम लोग मंदी के घाव से तो उबर चुके हैं, लेकिन आज भी कुछ क्षेत्र हैं, जहां नक़दी और जमा धन की समस्या अब भी है। उसे दूर करने के लिए हम प्रयासरत हैं।

तो फिर उर्जित पटेल पर इस्तीफ़ा देने का दबाव किस ने डाला?

भाजपा सरकार ने कभी किसी पर कोई दबाव नहीं डाला। भारत के बड़े पदाधिकारियों को काबू में रखना, उन पर दबाव डालना कांग्रेस सरकारों का काम रहा है, भाजपा का नहीं। कांग्रेस ने ऐसा किया है। वर्ष 1955 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया के तत्कालीन गवर्नर बेनेगल रामा राव को लिखित में निर्देश दिए कि आरबीआई की आर्थिक नीतियां सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस सरकार द्वारा तय की जाएगी, रिज़र्व बैंक उन पर केवल नज़र रख सकता है। अगर रिज़र्व बैंक कोई निति बनाता भी है, तो वो सरकार के पक्ष में होनी चाहिए। अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो आप इस्तीफ़ा दे सकते हैं। इसके आलावा मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। बात ख़तम। उसके बात जब एस. जगन्नाथन ने इंदिरा सरकार में मारुती मोटर्स को लोन के ऊपर लोन देने से मना कर दिया तो इंदिरा गांधी ने उनको बर्ख़ास्त कर दिया।

चंद्र शेखर की सरकार में जब यशवंत सिन्हा वित्तमंत्री थे, तो उन्होंने ने रा. ना. मल्होत्रा को सिर्फ़ इसलिए सस्पेंड कर दिया क्योंकि गवर्नर ने यशवंत सिन्हा को मनमानी नहीं करने दी। उसके बाद 2004 से 2014 तक भी पी. चिदंबरम ने दो कार्यकालों में भी रिज़र्व बैंक के गवर्नरों की आवाज को दबाया।

भाजपा सरकार में ऐसी कोई समस्या है ही नहीं। वित्तमंत्री ने कहा कि उनके दोनों रिज़र्व बैंक गवर्नरों के साथ आज भी अच्छे संबंध हैं। उनसे आज भी मुलाक़ात और बातचीत होती है जबकि दोनों ही आज रिज़र्व बैंक में नहीं हैं। लेकिन हमने जो प्रयास किये हैं, उसे कोई नहीं कहेगा। लोग सिर्फ़ कमी निकलने में लगे रहते हैं। आज हमसे कोई पूछता है, देश में नक़दी की समस्या है? हम उनसे यही कहते हैं, बेसक है। तो फिर आप लोग ही कहते हो की सरकार कुछ कर नहीं रही। फिर जब हम ये बात लेकर रिज़र्व बैंक अधिकारीयों के पास जाते हैं, उनसे कहते हैं…, भई इस समस्या का समाधान करो। यही तो आपका काम है, तो भी लोग कहते हैं, आप तो आरबीआई पर दबाव डालते हो। सरकार व्यवस्था बनाने के लिए ही तो होती है। अधिकारी अपना काम करें, अगर उन्हें कोई समस्या होती है, तो हम अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं।

आरबीआई की बोर्ड मीटिंग में भी यही हुआ था। केंद्र सरकार की नज़र ना तो ख़जाने पर है, ना ही सरकार ने आरबीआई गवर्नर से इस्तीफ़ा मांगा और ना ही हमें उनसे ऐसी कोई उम्मीद थी। काफी गहन अध्ययन किया गया, भारतीय पूंजी के बिगड़े हुए ढांचे को सकारात्मक बनाने के लिए चर्चा की गयी। इसलिए लोगों का ये आरोप सरासर ग़लत है कि सरकार ने आरबीआई गवर्नर दबाव डाला है या सरकार की नज़र आरबीआई के ख़जाने पर है।

source: Mahendra Verma

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